हमने ईश्वर को सर्वव्यापी माना
फिर भी, जगह-जगह उसके रहने को घर बना दिये!
और, उन्हें कहीं मन्दिर, कहीं मस्जिद, कहीं मठ
तो कहीं गिरिजाघरों के नाम दिये।
जहाँ-जहाँ हो सका, हमने उसे छोटी-बड़ी दीवारों में बाँध लिया
और, उसकी सार्वभौमिकता को हमने मनचाहा आकार दिया!
क्या हमने यह इसलिए किया कि
उसके अस्तित्व के प्रति हम पूरी तरह से आश्वस्त नहीं रहे?
या हमारे अन्दर के नास्तिक से हम बुरी तरह भयभीत रहे?
हमने उसे क्या भौतिक रूप से इसलिए अपने आसपास रखा
जिससे उसमें हमारा विश्वास आजीवन स्थिर रहे?
हम उसे बार-बार छुएँ, देखते रहें,
जिससे उसमें हमारी आस्था सबको दिखाती रहे?
मुझे नहीं लगता, इस तरह हमने
उसकी अपरिमित शक्तियों को प्रदर्शित किया, या,
अपनी सामूहिक कमजोरियों को?
मेरे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है!