भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वृक्षों की बीथिकाओं से / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:38, 3 मई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश सन्तोषी |अनुवादक= |संग्रह=आख...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वृक्षों की वीथिकाओं से होकर
हमेशा हवाएँ ही नहीं आतीं
कभी-कभी चला आता है वसन्त!

जी के तो देखो कुछ क्षण, वनों, उपवनों,
निर्जनों के संग;
तन-मन की किन-किन थाहों
अनन्यताओं जिया जाता है वसन्त!

ओस से धुले, फूलों के रंगों, उभरे फूले-फूले अंगों
भरी-भरी देहों के,
खुले-छिपे संदर्भों
माँसल सत्यताओं में जिया जाता है वसन्त,
अनन्यताओं में जिया जाता है वसन्त!

कोई छूके तो देखे, रोके, बाँहों में समेटे
सिहरती हवाओं के आलिंगनों
स्पर्शों से होके, पास से गुजरा जाता है,
सारा का सारा वसन्त,
अनन्यताओं में जिया जाता है वसन्त!