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कहीं बर्फ न जम जाए / महेश सन्तोषी

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कहीं बर्फ न जम जाये, इन पहाड़ों से रिश्तों पर
हवाओं के बहाने, हमें इनके सौ-सौ बुलाने आ गये!

कुछ हमारे आँसू थे, कुछ पहाड़ों के
रिसे तो रिसकर, उम्र की ढलानों तक आ गये!
कुछ प्यासें बुलाने आ गयीं, कुछ तृप्तियाँ,
(जन्म से ही सन्तप्त थीं., ये कुँवारी पहाड़ी नदियाँ)
ऐसे ही नहीं बहने लगते, आशाओं-विश्वासों के झरने,
दो प्राणों से ही होकर जाती हैं, प्यार की सारी पगडण्डियाँ,
किसी ने छुए तो होंगे बादलों के हाथ, हथेलियाँ, उंगलियाँ,
तभी तो मनचाही वादियाँ चुन लीं, चूम लीं, प्यार बरसाने आ गये!
हवाओं के बहाने, हमें इनके सौ-सौ बुलाने आ गये!

आएँगे फिर, इन पहाड़ों पर आएँगे हम,
साँसों सी सगी समय की किसी शिला को,
खोजने, समेटने, बाँहों में ढोने, आखिरी सावन बोने!
उम्र की शाम में बड़ी फिसलन है, सूनापन है,
अब शायद अकेले ही, बिल्कुल अकेले, फिसल जाएँगे हम,
वक्त के अँधेरों में, बियावानों में!
प्यार एक सत्य भी है, एक स्वप्न भी है, एक छाया भी,
सब एक साथ मिलकर, अब हमें अस्ताचल पर, सताने आ गये!
हवाओं के बहाने, हमें इनके सौ-सौ बुलाने आ गये!