एक शहर / महेश सन्तोषी
तुम्हारे नाम से अब बाकी है
थोड़ी सी यादों के खण्डहर ,
तुम्हारे बिना कितना खाली-खाली-सा है
तुम्हारी यादों से भरा, यह एक शहर!
यों, मैं यहाँ तुम्हें ढँूढने नहीं आया था,
पर मैंने तुम्हें यहाँ, कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा?
बार-बार पढ़ता रहा मैं जीवन का वह पृष्ठ,
जो यहाँ कभी ढल गया था आधा-अधूरा!
मैं यहाँ किसी से तुम्हारे बारे में
कुछ पूछने भी नहीं आया था,
पर सभी सड़कों, गलियों और घरों से
मैं पूछता रहा तुम्हारा पता,
वैसे सभी पहिचाने से, परिचित से लगे,
सिर्फ नयी थी तुमसे अपरिचय की अपरिमित व्यथा,
किसी डूबे हुए अतीत में झाँक कर
मैं यहाँ तुम्हें देखने भी नहीं आया था,
पर मुझे यहाँ तुम्हारे अतिरिक्त कहीं कुछ नहीं दिखा,
हर एक दिशा से तुम मुझे आती हुई सी लगीं
तुम्हें लाती हुई सी दिखी, हर एक दिशा,
भले ही इस शहर से होकर गुजरी हो हमारी जिन्दगियाँ
पर यह शहर हमारे अतीत को अब दोहरा नहीं सकता,
हमारे नाम से अब यहाँ जुड़े रहेंगे बस
थोड़ी सी यादों के खण्डहर!