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प्राणों से एलबम तक / महेश सन्तोषी

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एक भूली हुई पहिचान
बनने में तुम्हें वक़्त नहीं लगा,
आज जब एलबम में देखा
तो तुम्हें कहीं देखा-सा लगा,

मैं कभी एलबम, तो कभी
जिन्दगी में तुम्हें खोजती रही,
कभी हम में कितना प्यार रहा
कितनी दोस्ती रही?
वर्षों से तुम मेरी आँखों की चमक बने रहे,
तुम्हारे आने तक की आहटों को मैं चूमती रही,

फिर एक दिन अपने लिए
एक सम्मानजनक नाम चुन लिया,
और तुम्हें एक अप्रत्याशित अपमान से
भुला सा दिया,
तुम मेरी नयी पहिचान ही
मेरी जिन्दगी बन गयीं,
मैंने तुम्हें फिर न पहिचाना
न तुम्हारा नाम लिया,
धीरे-धीरे तुम धूल भरे
एलबम में बन्द हो गये,
और न मेरी बाहों में रहे और न प्राणों में रहे,
अब पहले जैसा एलबम भी नया नहीं रहा,
पहिले जैसे मेरे प्राण भी पुराने नहीं रहे।