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हमारी उम्र की शाम सही 2 / महेश सन्तोषी

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कुछ दिन फूलों से खिली रहीं
हमारी ज़िन्दगियाँ,
हम फूलांे की गलियों से होकर
आते-जाते रहे,

पर एक दिन कोई और ही आकर
भर गया तुम्हारी मांग में
सिन्दूर की रेखा!
वक़्त के उस मोड़ पर हम
ठगे से खड़े रहे,
वक़्त ने फिर कभी पीछे
मुड़कर नहीं देखा!

कुछ स्थायी अभावों और कुछ स्थायी पीड़ओं में
बँधकर रह गयी कविता,
प्यार के तपते स्थायी पतझरों से होकर
ही फिर हमारा सारा जीवन बीता,
परिणय और प्यार वैसे तो किसी
प्यार की अनविार्य नियति नहीं होते,
पर किसी और की परिणीता के लिए
हम कैसे आगे वसन्त के सपने बोते?
हमने फिर कभी सपने नहीं बोये,
दर्द की नयी-नयी फसलें बोईं!