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हमारी उम्र की शाम सही 3 / महेश सन्तोषी

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सुबह उठे तो गीत रोये,
रात को सोते-सोते ग़ज़लें रोईं,
उम्र की ढलानों पर भी तुम प्राणों में
पहले जैसी ऊँचाइयों पर रहीं,
आँखों के क्षितिजों तक
प्रकाशित रहीं तुम
साँसों की गहराइयों में स्थापित रहीं!

जहाँ तक चल सके हम,
साँसों का सही आलेख था
आत्मा का गीत थी कविता
अब आगे अस्ताचल है, अँधेरे हैं,
पास मंे शब्दों का देवता नहीं दिखता,
आज लगता है जैसे एक उम्र ही,
कम पड़ गयी हो प्यार की इबादत में,
पत्थर नहीं, आसुँओं से,
आलेखित कुछ अक्षर हम पीछे छोड़ रहे हैं,
प्यार के रास्तों में
यह हमारी उम्र की शाम सही!
अब हमारा तुम्हें यह आखिरी सलाम सही!!