बहुत सुखद लगा
किसी पर कविता लिखना,
और उसी से यह कहना
मैं बोलता हूँ जरा
तुम यह एक कविता लिखना,
बहुत सुखद लगा...!
उसका उन शब्दों को
धीमे-धीमे लिखते दिखना,
जो पूरे उसे सम्बोधित थे
पर आधे थे सम्बोधन बिना,
हँसती आँखांे का क्या कहना,
मन भर देखा
सच होता मन का सपना,
बहुत सुखद लगा...!
जब अक्षर-अक्षर जी उठी
अपनी ही कोई रचना,
हथेलियों की धूप से
उस नयी अप्सरा का सपना मथना
कोई कल्पना नहीं थी
सपना नहीं था सामने
सजीव बैठा था प्यार अपना!
एक कविता लिखना
बहुत सुखद लगा!