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सेनसेक्स और महंगाई / महेश सन्तोषी

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सेनसेक्स नई ऊँचाईयाँ छू रहा है
और महंगाई भी,
यह सभी जिन्सों के महंगे होने का वक़्त है;
थोक में भी, इकजाई भी,
देखने में इन दोनों के बीच कोई सीधी दोस्ती नहीं है!
पर अर्थशास्त्र की यह ऐसी बारीकी है
जो बाजार में बिकती तो है, दिखती नहीं है!

एक अर्थशास्त्र होता है-
अमीर बनाने और अमीरी बढ़ाने का,
दूसरा अर्थशास्त्र होता है-
गरीब बनाने और गरीबी बढ़ाने का,
बाहरी और आन्तरिक अर्थशास्त्र के बीच
थोक में कई बेईमानियाँ हैं,
बेमानी नहीं हैं, यह असामयिक महंगाई
इसके पीछे ईमान की खरी लेनदारियाँ हैं-देनदारियाँ हैं!

एक मजबूत मार्शल ने एक गहरा धक्का देकर
मार्क्स को गड्ढे मंे धकेल दिया है,
यह एक विश्वव्यापी आर्थिक सुधारों की
शाश्वत प्रक्रिया है!

इधर गरीबी की रेखाएँ हैं,
उधर करोड़पतियों की, रोज की नयी गणनाएँ!
समान्तर हैं कुछ धरातल आसमान की ओर उठते हुए
कुछ धरातल पर, अस्तित्वों की नगण्यताएँ!!
गरीबी उन्मूलन का कार्य,
ऐसा लगता है, अब खत्म हो चुका है;
इस बीच, गरीबी और गरीबों दोनों का ही
नीतिगत अवमूल्यन हो चुका है!
महंगी सरकारों की,
महंगाई रोकने की अपनी सीमाएँ हैं!
मर्यादाएँ हैं!!
कल के शब्दों का मीनू,
शाम तक परसा जा चुका है
सुबह से फिर वही थोथी, निपूती, घोषणाएँ हैं!

सड़क का आदमी, सड़क पर ही है
सामने मीनारोंनुमा इमारातों का जाल देख रहा है;
वह मार्क्स को उसकी कब्र से उखाड़कर
फिर ज़िन्दा करना चाहता है,
कहीं से कोई रास्ता बने, देख रहा है,
एक रास्ता महंगी आदमीयत और
रोज महंगे होते जीन्सों के बीच;
इतिहास के मानचित्रों के ऊपर
वक़्त के मार्गचित्रों के बीच!!