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अहम् के कोहरे / महेश सन्तोषी

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गये वक़्त की, एक बदनाम विरासत
तुम्हारे नकली सोच की, अब असली पहिचान बन गयी है!
असामयिक हैं ये मानसिकताएँ, समय से हारे मूल्य, मान्यताएँ,
तुम्हारी सारी उजली पहिचान दम्भ की सकरी दरारों में दब गयी है!

अहम् के जो सबक तुमने क़ायदे से,
कल बिगड़े तहज़ीब के कुछ बेअदब मदरसों में सीखे थे;
वे दास्तां जीवित रखने के एक विदेशी सत्ता के
कवायदों के तौर-तरीके थे!
पर तुम जन्म के निरे देशी हो, कर्म से, स्व-धर्म से भी
और अन्त तक देशी ही रहोगे!

फिर अपनी त्वचा पर ये विजातीय रंग, सूखे उबटन,
आचरणों में आडम्बर, दम्भ तुम कब तक ओढ़े रहोगे?
जिसे तुम कभी सीधा समूचा नहीं देख सके,
वह सड़क का आदमी था,
तुम उसे हमेशा आड़ी-तिरछी-टेढ़ी नज़रों से देखते रहे
समय की बदहाल सड़क पर कुछ लोग
त्रस्त, सन्तप्त, तिरस्कृत हर शाम खड़े थे!

वे हर सुबह वैसी की वैसी बदहालियों में विस्मृत खड़े रहे
गरीबी, किताबों के सफ़ों के आगे,
कितने बुझे चूल्हों और घरों की दरारों तक बिखरी रही?
तुम्हारी आँखों से अनदेखी रही,
हाथों से अछूती रही,

कुछ लोग अन्दर गरीबी बोते रहे
तुम बाहर दरवाज़ों पर खड़े रहे!
फिर वह तुम्हारे लिए कोरी कागजी आकृति रही,
कृति रही, अनुकृति रही,
घरेलू तोतों की एक संस्कृति थी,
जो तुम बड़ी हिफाजत से सम्हालते रहे, पालते रहे!
जब, जो जितना, जैसा चाहा, बुलवा लिया,
तोते कतारों में थे, मनचाहा उतलाते-तुतलाते रहे!

बड़े फासले पर हो तुम आम आदमी से,
ज़िन्दगी की असलियतों से
निरी ज़मीनी हक़ीक़तों से
थक गये हैं लोग तम्हारे घिसे-पिटे व्याकरणों से,
लम्बी-लम्बी खोटी, नुमाइशी इबारतों से!
वक़्त की दौड़ में पिछड़ गए हो तुम,
अगली सुबह, तुम्हारी बीमार विरासतों
और बदनाम पहिचानों के नाम नहीं होगी;
सुबह तो होगी, होना ही है, पर वह तुम्हारे
तम्बुओं के, खेमों के, खेमों के, पिटे निज़ाम में,
इन्तज़ाम में नहीं होगी!