भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मौसम की बात / दिनेश जुगरान

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:18, 12 मई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश जुगरान |अनुवादक= |संग्रह=इन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कल बहुत देर तक
अपने से नफरत और युद्ध के बीच के
लम्हों को समेट कर
मैं चुपके से एक कुदाल लेकर
निकल पड़ा जहाँ मेरे बीज दबे हुए हैं

ये सारे ज़ख्म इसी बस्ती के लोगों ने दिए हैं
जो हर सुबह कानों में कुछ फुसफुसाकर
मेरे आने वाले कल का सौदा करना चाहते हैं

ये कैसी आग है
टकरा कर पसीने से और सुलगती जाती है
और तुम हो कि न जाने किस
आने वाले मौसम की बात कर रहे हो

यह अधूरा निरर्थक, अनिर्णायक युद्ध
कभी-कभी विश्वास करने को मन होता है
अगर हम कोई और रास्ता भी चुनते
तो हमें यह भी इसी अजगर के मुँह तक लाता