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अदृश्य कनगोजर / शिव कुमार झा 'टिल्लू'

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आवृति... पुनरावृति
ई भौतिकीय शब्द
बदलि देलक
एडवांस होइत मनोवृतिक
भ्रम केँ..
माय धरिणी छलीह
पहिने गोल
आब विज्ञान अंडा जकाँ मानैछ
सहमत छी...
की अंडाकार भूमि पर
चलला सँ
फेर ओहि ठाम पहुँचब नहि
जाहि ठाम सँ
कयने छलहुँ यात्रा आरम्भ,,,
कहबाक माने
आगाँ सोचू
कोनो छोह नहि
नहि संताप
नहि विलाप नहि प्रलाप
मुदा! संगहि संग
पाछाँ सेहो देखू ..
युगधर्मक आवृतिक दिश
नहायब त' पानिये सँ
तखन...
अपन संस्कारक पानि केँ पोछि
किए करैत छी उत्सर्ग
पसेना जकाँ ..
एक्वागार्ड लगा लेलहुँ
मुदा! मूलजल
आएत कतय सँ?
वरखा वा माटिये सँ ने
गाछ- वृछ लगाउ
इन्द्र केँ बजाउ
एक हाथ लिअ 'दोसर दिअ'
ओहि लेल छैक जरूरी
बाध-बोन गाम घर ..
थ्रीटियरक बोगी जकाँ
फ्लैट नहि...
चौबटिया निसहरा सुरहा
अखड्डा कहू वा नरिया
भीठ आ धनहा जोगाऊ
पहिने आन कहैत छल
बिहारक वासी
मरुआक पोषी
रौ बुड़िबक सभ
दुर्लभ भ' गेल आब
वेअह हमर बिहारक मरुआ
तोहर रागी
सुगरक रक्षक
कैलोरीक भक्षक...
सतर्क भ' गामो केँ सोझराउ
अपन देह -नेह गेह बचाउ
ई आवृतिक संकेतन
हमर देल नहि
प्रकृतिक लक्षण
जाहि ठाम सँ
भेल छल आदि
जा रहल ओहि ठाम
मने अंत! विखंडन!!