Last modified on 5 जून 2017, at 17:35

स्वामी अभेदानन्द के प्रति / लाखन सिंह भदौरिया

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:35, 5 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लाखन सिंह भदौरिया |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दिशि दिशि में तिमिर का कोप, रह-रह उठ रहे तूफान।
लहरें बन रहीं आवर्त, भवरों में फँसे हर प्राण।
सागर का उफनता रूप, तट का है कहीं न निशान;
मेघों से घिरा है व्योम, डगमग ज्योति का जलयान।

किरणें हो रहीं हैं लुप्त निष्प्रभ हो रहा, दिन मान।
क्षण-क्षण उग्र उल्का पात, लगता आ रहा, अवसान।
यम की दाढ़ में है सृष्टि, धरती पर गरल सैलाव;
मानव है प्रलय के बीच जीवन का लगाये दाँव।

प्रतिपल बिछ रही है विश्व में विद्वेष की बारूद।
खड़ी विस्फोट के मुख पर मनुजता आज आँखें मूँद।
जो यह आज भीषण दृश्य उससे भी विषमतर रूप;
भूपर या घिरा तम तोम, रंचक थी न रवि की धूप।

ऐसी ही विषमता बीच, उमड़ा एक करुणा स्रोत।
ज्योतित आत्मा के तेज से कर विश्व ओत-प्रोत।
गिरा में अंगिरा का बल, लिये स्वर में मधुर मधु छन्द;
प्रकटे थे दया-आनन्द हरने विश्व का दुख-द्वन्द्व।

समता, सत्य का वह सूर्य, वैदिक रश्मियों का भानु।
लगता था नया आलोक, बन कर के प्रचण्ड कृशानु।
की थी रूढ़ियाँ सब क्षार, बाँटी थी सुधा की धार;
तम के तोड़ वज्र किवाड़ खोला था किरण का द्वार।

उस ही अंशुमाली की किरण बन कर अभेदानन्द।
आये निज करों से बाँटने, आलोक का मकरन्द।
दृग में थी दया की ज्योति, उर में था, अमिय आगार;
भेदा था तिमिर का गात, बन कर के अभेदा गार।

जिसका धर्म क्षेत्र जहाँन, जिसका कर्म क्षेत्र विहार।
सारा विश्व होवे आर्य इस पर जो हुआ बलिहार।
उसका मौत है उपदेश, उसकी ज्योति-रश्मि विलीन;
उसके यज्ञ की रुचि गन्ध, अन्तस प्राण पर आसीन।

लगता थक गये थे, कर्म रत रहते हुये अविराम।
शायद इसलिये ही दे दिया इस देह को विश्राम।
लगता वे गये उस लोक लाने फिर नया आलोक;
नूतन ज्योति की है माँग, छाया है धरा पर शोक।

लगता वे प्रवासी शीघ्र लौटेंगे, अटल विश्वास।
तमसाच्छन्न है भूगोल, मेघाछन्न है आकाश।
व्यथा ने आज भारी मन विदा में मूक ढलती शाम;
झुके हैं शीशि, श्रद्धानत, हृदय से मौन-मौन प्रणाम।