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महाप्राण निराला / लाखन सिंह भदौरिया

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अन्धकार में उदित सूर्य-सी, कविता क्रान्ति बिखेरी,
अवरोधों की अनी पराजित, निज प्रतिभा से फेरी,
संघर्षों से झुका न जिसका पौरुष, महाप्रबल, था;
अन्तस में अमृत हिलोर थी, दृग में गंगा जल था।

जग ने पागल कहा सहा, क्या क्या, तुमने दीवाने,
तुम मर कर जिये, अमृत की गंगा को ढुलकाने,
नीलकण्ठ बन गये, कला-हित पिया गरल का प्याला;
मिला नागरी को ऊर्जास्वित अपराजेय निराला।

अपने जीवन तरु पर तुमने अमर बेलि पौढ़ाई,
वह तुम पर छा गयी, तुम्हारी ही, पीकर तरुणायी,
जिसकी गिरा, अंगिरा का बल, लेकर भू पर उतरी;
ज्योति हंस उड़ गया, कला की स्वर्ण राशि हैं बिखरी।