वे माँगें मत / शिवशंकर मिश्र
वे माँगें मत, हम बदकिस्मत
भला उन्हें दे सकेंगे क्या?
वे मत आएँ पास हमारे,
दीन-हीन हम हैं दुखियारे,
किसी सड़के के दायें-बायें,
कहीं गली के एक किनारे:
किसी गढ़े के ऊपर-नीचे,
दिल को हाथों दिए सहारे,
कहीं अँधेरे में हम पसरे,
ताक रहे हैं नभ के तारे;
कहाँ उन्हें बैठाएँगे हम,
सेवा उन की करेंगे क्या?
वे कहते हैं, सच कहते हैं,
लोकतंत्र है जारी हम से,
हमीं मूर्ख हैं, हमीं न समझे,
देश हुआ है भारी हम से;
वे जो करते, सदा भले की,
उन की हर तैयारी हम से,
हम से चलती संसद-परिष्द,
गठित सभाएँ सारी हम से;
मत की कीमत हमीं न संझे,
वे फिर हम को भरेंगे क्या?
हम उन के हाथों के बल हैं,
फिर भी उन के पाँवों में हैं,
महानगर के राजकुवँर वे,
हम गलियारों- गाँवों में है;
वे छाँवों में हरे-हरे हैं,
हम दिन-रात अलावों में हैं,
हम हैं ढेले-पत्थर अब भी,
वे हर बार चुनावों में हैं;
वे नेता हैं, जो भी कर लें,
किसी का हम कर लेंगे क्या?
थोड़ी उन की पोल खुली है,
थोड़ा हम भी जान गए हैं,
वे हम को पहचान न पाए,
हम उन को पहचान गए हैं;
किस की खातिर वे लड़ते हैं,
या हम हो बलिदान गए हैं,
उम्मीदें सब पानी करके,
वे धोके ईमान गए हैं;
चाल न उन की बदली अब तक,
अपनी भी हम बदलेंगे क्या?