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सलाय रोॅ काठी / नवीन ठाकुर ‘संधि’

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तोहें जरी-जरी कैन्हेॅ मरै छोॅ,
सोचोॅ तोहेॅ हय की करै छोॅ?
दिन-रात सोची-सोची करतेॅ रहबेॅ लड़ाय,
मतुर, कहियोॅ नै होतौं तोरोॅ बड़ाय।
जराय रोॅ पहिनेॅ देखोॅ जरी जाय छै काठी सलाय,
जेन्हाँ कमारोॅ रोॅ भाँथी, सुलगै मुँह फुलाय।
पंडित ज्ञानी बनी शाँति रोॅ पाठ कैन्हें ने पढ़ै छोॅ?
तोहेॅ जराय छोॅ की जरै छोॅ,
सोचोॅ तोहेॅ हय की करै छोॅ?
शंका सें हरदम रहोॅ तोहें दूर,
भला-बूरा करै सें नै होभेॅ मजबूर।
कुम्हारोॅ रोॅ आबा में सुलगै छै आग,
ईरसा के आगोॅ में जरी केॅ आदमी होय गेलै चकनाचूर।
 "संधि" कहै, हे प्रभु आवा में सब्भै केॅ एक्केॅ रंग कैन्हेॅ नै बनाय छोॅ,
सोचोॅ तोहेॅ हय की करै छोॅ?