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खुट्टी / नवीन ठाकुर ‘संधि’

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जबेॅ घुरी केॅ देखलियै हम्में चारो दिश,
 बीचों गंगा में टिमटिमाय छेलै एक टा दीप।
 
 ढॉव आबेॅ कि लहर आरो तूफान,
 मतुर जलतैं रहै छै साँझ-बिहान।
 सँाच में आँच नै, जानै छै जहान,
 कठिन तपस्या ओकरोॅ छेकै पहचान।
 जेनॉ ढॉव रोॅ साथेॅ रहै छै सीप,
 
 कोय नै छोड़ै छै आपनोॅ प्राकृतिक लक्षण,
 जौनेॅ छोड़ै छै ओकरा करै छै प्राकृति नें भक्षण।
 जे चलै छै प्रकृति रोॅ सत्-पथ कथन,
 ओकरा प्रकृति नै करै कहियो दमन।
 खुट्टी केॅ रहोॅ "संधि" जाताँ रोॅ समीप