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जिनगी अंत / नवीन ठाकुर ‘संधि’

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एैलेॅ दिवाली, एैलेॅ दिवाली,
घर-घर में अलख जगावै वाली।

घर-आंगन आरो दुआर,
दीप जलैबेॅ धारे धार।
कीड़ा मकौड़ा मरेॅ बौछार,
येहेॅ छेकै दीया रोॅ सार।
सब्भै रोॅ मनों में जोश जगाबै वाली

खाय छै सभ्भें खीर पूड़ी, पुआ, पकवान,
छोड़ै बम पड़ाका साँझ-विहान।
पड़ै छै केकरोॅ-केकरोॅ खतरा में जान,
ओकरोॅ पीछूँ देखोॅ छुरछुरिया रोॅ शान।
अन्हरिया में दीपदान दै वाली,

कातिक महीना कत्तेॅ मनभावन,
माय बहिन नहाय केॅ होय छै पावन।
वंश बुनियाद बढ़तै भरतै दामन,
येॅहेॅ दिन राम रोॅ वन सें होलै आगमन।
घर-घर गेलै "संधि" लैकेॅ खुशियाली।