बज चुकी है बीन मन की अब न कोई तार बाकी।
चेतना का भार तजकर सो चुके हैं सप्त स्वर भी,
वेदना की ताल सुनकर मौन हैं मुखरित अधर भी,
है मगर कवि के हृदय में आज भी झंकार बाकी।
बज चुकी है बीन मन की अब न कोई तार बाकी।
मुक्त लहरों के हृदय से व्यर्थ खुलकर खेलना क्या,
और इठलाती भंवर के सजल बंधन झेलना क्या,
मिट चुके दोनों किनारे अब न कोई पार बाकी।
बज चुकी है बीन मन की अब न कोई तार बाकी।
क्यों मनाऊँ सुख यहाँ सुख की प्रथा अब तक न थिर है,
क्यों मनाऊँ दुख यहाँ दुख की व्यथा सचमुच मधुर है,
अब नहीं जीवन-समर में जीत बाकी, हार बाकी।
बज चुकी है बीन मन की अब न कोई तार बाकी।