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यह कैसे समझा दूँ तुमको / बलबीर सिंह 'रंग'

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यह कैसे समझा दूँ तुमको, क्यों प्यार किया करता हूँ मैं?
आशा-तरु के उन्माद-वृन्त पर
विकसित प्यार हुआ मेरा,
मादकता की मलयानिल छू
सुरभित संसार हुआ मेरा,
तुम मेरे मानस में बिहरीं
बन कर पराग की अरुणाई,
अपवादों की लतिकाओं पर
संघर्षों ने ली अँगड़ाई,
उन संघर्षों से ही अपना शृंगार करता हूँ मैं।
यह कैसे समझा दूँ तुमको, क्यों प्यार किया करता हूँ मैं?

मेरी तुमसे पहचान नहीं
मैं अश्रु और तुम क्षार नवल,
मैं शैशव का संयोग और
तुम यौवन के अभिसार सफल,
तुम युग-युग संचित अमर क्रांति
मैं चिर-वंचित अधिकार विकल,
मैं व्यथित चकोरी की पीड़ा
तुम राकापति के प्यार विमल,
शशि के धोखे अंगारों से अभिसार किया करता हूँ मैं।
यह कैसे समझा दूँ तुमको, क्यों प्यार किया करता हूँ मैं?

तुम मेरे नयनों में न पढ़ो
अपनी जीवन परिभाषा को,
तुम अपने अधरों में न भरो
मेरी चिर-क्षुधित पिपासा को,
मैं अपने आहत यौवन पर
आघात प्रणय के झेल चुका,
सुख-दुख की आँख मिचौनी में
मैं खेल अनेकों खेल चुका,
अब तो अपने ही जीवन से खिलवाड़ किया करता हूँ मैं।
यह कैसे समझा दूँ तुमको, क्यों प्यार किया करता हूँ मैं?