बर्षों पहले
पास के गाँव में
ब्याही बेटी
रहती है फिक्रमंद आज भी
बूढी माँ के लिए
जबकि वह खुद भी
बन चुकी है अब
दादी और नानी।
अक्सर गुजरती
मायके के साथ लगती सड़क से
खिंची चली आती है
आँगन में बैठी
बूढी माँ के पास।
वह चुरा लेती है कुछ पल
माँ की सेवा के लिए
अपने भरे – पुरे परिवार की
जिम्मेदारियों के बीच भी।
पानी गर्म कर
नहलाती है माँ को
धोती है उसके कपड़े – लत्ते
संवारती है सलीके से
सिर पर उलझी हुई चांदी को
शायद वैसे ही
जैसे करती होगी माँ
जब वह छोटी थी।
बूढी माँ देखती रहती है
टुकुर – टुकुर
विस्मृत हुई स्मृतियाँ
बेटी के बचपन की
लगाती हैं छलांग अवचेतन से।
फेरती है हाथ प्यार से
बेटी के सिर पर
भावनाएं छलक पड़ती हैं
जीर्ण नेत्रों से
न चाहकर भी।
द्रवित हुई बेटी चाहती है दिखाना
मजबूत खुद को
बंधाती है ढाढस माँ को
उम्र की इस अवस्था में
अब बेटी
हो जाना चाहती है ‘माँ’!