भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रिश्तों के भंवर में / मनोज चौहान

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:53, 23 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रिश्तों के नाज़ुक धागों में
पड़ जाती हैं गिरहें
अक्सर
ग़लतफ़हमी की
या फिर अहम के
हावी हो जाने से।

नहीं चाहता त्याग देना
कोई भी
निज अहंकार को
जड़ होते चले जाते हैं रिश्ते
गुजरते हुए बक्त के साथ।

चाहता है इंसान
सहेज कर रखना चंद रिश्ते
हमेशा ही
मगर वो अक्सर
छूटते चले जाते हैं
उर्जा विहीन सा कर जाते हैं
जीवन को।

बनते, छुटते और उधड़ते
रिश्तों के भंवर में
ता उम्र
घूमता रहता है इन्सान
चहुँ ओर
कोल्हू के बैल की मानिंद।