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ऐ कविता! / मनोज चौहान

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दस्तक देना तुम कभी
ऐ कविता
दिनभर कमर तोड़ चुके
ईन्ट-भठ्ठे के मजदूरों की
उन बास छोड़ती झुग्गियों में
बीड़ी के धुंएँ और
सस्ते देशी ठर्रे के घूंट पीकर
जो चाहते हैं मिटा देना
थकान और चिंताओं को
व भीतर उपजती पीड़ाओं को भी
और बुनते हैं सपनों का ताना
बच्चों के उज्जवल भविष्य का।

महसूस करना तुम
देश की सरहद पर
दुश्मन की गोली खाए
सूरमा के अंतिम क्षणों में
उसकी आँखों में उभर आये दर्द को
जिनमें बन रहा है अक्स
माँ – बाप, बहन, बेटी
और उसकी अर्धांगिनी का।

तुम जाना धीरे से दबे पावं
उन खेतों में
जहाँ टन-टन की आवाज करती
बैलों के गले में बंधी घंटियाँ
और हल के फाल से
जुतते खेतों में
पसीने से भीगा
गमछा निचोड़ता किसान
रोप रहा है
उम्मीदों की फसल।
देखना कभी नजदीक जाकर
उस पहाड़ी औरत के हौसले को
जब वह खिंचती है झूले को
निडरता और आत्मविश्वास के साथ
और पार कर जाती है
उफनती नदी को।

सुनना कभी वह करुण पुकार
जो कर दी गई है अनसुनी
रखना तुम मरहम
किसी शोषित के घावों पर
बन जाना तुम
एक भारी – भरकम हथौड़ा
जो तोड़ दे दीवारें
असमानता की।

अपने शब्दों से तुम
पैदा करना तीक्ष्ण स्वर
मंदिर में फूंक भरे
किसी शंख की तरह
या फिर मस्जिद से गूंज रही
अजान सी हो जाना तुम
जो जगा दे आदमियत को
मजहबी मलिनता की नींद से।

तुम हो जाना
वह पखेरू
जो लाँघ दे सरहदों को
सूरज और चाँद जिस तरह
सांझे हैं समस्त जगत के
ठीक वैसे ही तुम भी
सबकी हो जाना
ऐ कविता।