उदासी / अमरजीत कौंके
छूकर नहीं देखा
उस को मैंने कभी
लेकिन सदा रहती वह
मेरे आस-पास
उसकी परछाई
सदा दिखाई देती रहती मुझे
मेरे इर्द गिर्द
जब भी
मैं अपने ऊपर कसा
ज़राबख्तर थोड़ा सा
ढ़ीला करता
अपना पत्थर का शरीर
थोड़ा सा गीला करता
वह धीरे से
मेरे जिस्म में प्रवेश करती
मुझे कहती -
क्यों रहते हो दूर मुझ से
क्यों भागते हो डर कर
मैं तो सदियों से तुम्हारे साथ
मुझे सदा तुम्हारे अंग संग रहना...
वह मेरे जिस्म में फैलती
चलने लगती मेरे अंदर
मेरे भीतर से
सोए स्वरों को जगाती
अतीत की आँधी उठाती
मुझे अद्भुत से संसार में
ले जाती
जहाँ से कई-कई दिन
वापिस लौटने के लिए
कोई रास्ता नहीं मिलता
मैं फिर लौटता आखिर
वर्तमान के
भूलभूलैयों में खोता
लेकिन उसकी परछाई
सदा दिखाई देती रहती मुझे
आस-पास
सदा रहती वह
मेरे इर्द गिर्द।