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कविता और महबूब / अमरजीत कौंके

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महबूब जैसी होती है कविता
थोड़ा सा ध्यान न दो
तो यह रूठ जाती
फिर देर तक न मानती

थोड़ी देर
तुम इसके वापिस लौटने का
इंतज़ार करते
सोचते
कुछ दिन बाद
आ जाएगी वापिस
अपने आप

लेकिन कविता
महबूब जैसी होती
वह नहीं आती
अपने आप
भुला देती तुम्हें
छोड़ देती तुम्हें
तुम्हारे रहमो करम पर

तुम कुछ दिनों के लिए
बेगानी वादियों में भटकते
कविताएं लिखने की जगह
कविताओं की पुस्तकों के
पृष्ठ पलटते
कुछ देर
बेगानी कविताओं में उलझते
धीरे धीरे लेकिन
तुम्हें फिर अपनी
कविताओं की याद आती
बहुत सताती

तुम कविता को मनाते
लेकिन वो नहीं मानती
 
तुम मनाते
कितनी मिन्नतें कितने तरले
वह फिर अचानक मुस्कुराती
धीरे धीरे
मतवाली चाल चलती
वह फिर तुम्हारे पास आती

तुम्हारा मन
फिर शब्दों
फिर प्यार से महक उठता
वियोग का समय खत्म होता

लगता जैसे
तुम और वह
कभी बिछुड़े ही
नहीं थे।