भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेकाबू जंगल / अमरजीत कौंके

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:26, 27 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरजीत कौंके |अनुवादक= |संग्रह=बन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अादिकाल से
आधुनिक युग में
पहुँच गया है मानव चाहे
पर इसके भीतर
सदियों से ही
सदा एक खूंखार जानवर
सोया रहता

अवसर पाते ही
किसी घटना की
छोटी सी कोई
कँकर इसे जगा सकती है
फ़िज़ा में अग्नि लगा सकती है

जंगल राज

 बंद है
धर्म के नाम पर
बंद है आज

अभी घरों से निकलेंगी
वहशी भीड़ें
धर्म के नाम पर
नारे लगातीं
नंगी तलवारें
हवा में लहरातीं
आम आदमी को डरातीं
अभी सड़कों पर
दनदनायेंगी भीड़ें

रोटी के डिब्बे लिए
काम पर जा रहे
आम आदमी सहम जाएंगे
डर जायेंगे
स्कूल जा रहे बच्चे
खुली दुकानों के
शीशे तोड़ती
पत्थर मारती
निहत्थों को ललकारती
अभी ही निकलेंगी
सड़कों पर वहशी भीड़ें

ये भीड़ें
राह जाते आदमियों को मारेंगी
बर्जुगों की दाढ़ी पर
हाथ डालेंगी
औरतों को बेइज़्ज़त करेंगी
वाहनों को जलायेंगी
घरों को उजाड़ेंगी
आज यह भीड़ें
आदमियों की तरह नहीं
जानवरों से भी
उग्र रूप में
चिंघाड़ेंगीं
 
आकाश तक गूँजेंगें
धर्म को बचाने के नारे
पत्थरों से ज़ख़्मी हुये
आम आदमी
दौड़ेंगे
शरण ढूँढेंगे बेचारे

लेकिन सड़कों पर
बेलगाम भीड़ों के इलावा
और कुछ भी नहीं होगा
ताकत की देख रेख में
होता तमाशा देख कर
जंगल भी रोएगा

वहशी भीड़ों को रोकने वाला
शहर में कोई नहीं होगा
आज सारा दिन शहर में
लोक-राज नहीं
जंगल-राज होगा।