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बुढ़िया नानी / कन्हैयालाल मत्त
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एक कहानी सुनो पुरानी,
है कुछ-कुछ जानी-पहचानी।
एक पोपली सूकट बुढ़िया,
थी बिल्कुल आफत की पुड़िया।
रबड़ी, हलुआ, खीर, मलाई,
खस्ता-खस्ता नानखताई
खाते-खाते कभी न थकती,
दिन-भर उलटा-सीधा बकती।
बच्चे करते थे शैतानी,
कहते थे-'ओ बुढ़िया नानी!
इतना जीकर क्या करना है?
मरने से कत तक डरना है?'
सुनकर नानी चिढ़ जाती थी,
वह उन सबसे भिड़ जाती थी।
कहती-'तुम तो हो सिलबिल्लू,
कोरमकोर काठ के उल्लू!
इतना नहीं समझ पाए तुम,
बनने चले आदमी की दुम!
घर में इतना माल भरा है,
मरने में क्या सार धरा है?
जब तक जीना, सुख से जीना,
मौज-मजे से खाना-पीना।
यही जिंदगी का उसूल है,
और बात बिल्कुल फिजूल है!'