भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निर्वासन / रेखा चमोली
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:34, 28 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा चमोली |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सबसे पहले मेरी हँसी गुम हुयी
जो तुम्हें बहुत प्रिय थी
तुम्हें पता भी न चला
फिर मेरा चेहरा मुरझाने लगा
रंग फीका पड गया
तुमने परवाह न की
मेरे हाथ खुरदुरे होते गए दिन प्रतिदिन
तुम्हें कुछ महसूस न हुआ
मेरा चुस्त मजबूत शरीर पीडा से भर गया
तुम्हें समय नहीं था एक पल का भी
मैंने शिकायतें की, रूठी, चिढी
तुमने कहा नाटक करती है
मेरी व्यस्ताएं बढती गयीं
तुम्हारी तटस्थता के साथ
अब मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं
कोई दुख या परेशानी नहीं
पर इस बीच तुम
मेरे मन से निर्वासित हो गए।