मैंने भूमि में दबा दिया था एक बीज
बीज अंकुरित हुआ... और बन गया वृक्ष
तुमने कहा-यह तो एक नैसर्गिक प्रक्रिया है
ऐसा स्वतः होता है
स्वतः?... कैसे... ? कब... ?
अनेक प्रश्न समक्ष थे
तुम उन प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़
बढ़ गये थे आगे
कुछ बीज हमने भी बोये थे
हवायें परिवर्तित हुईं
कभी अनुकूल... कभी प्रतिकूल
ऋतुयें भी बदलीं
मैंने की थी प्रतीक्षा/ नव-पल्लव... नव-प्रभात की
सुसृत इच्छाओं ने सृजित किया स्वप्न
उन सपनों ने गढ़ा एक और स्वप्न
मात्र स्वप्न... प्रतीक्षा नव-अंकुरण की
बीज सूख रहे हैं
विस्तृत होती जा रही है
दूर-दूर तक... धूसर भूमि
प्रश्न अनुत्त्रित हैं... तुम्हें आना होगा
उत्तर तुम्हें देना होगा
सर्वहारा हूँ... किन्तु हाशिये पर नहीं जाऊँगा
तुम्हें उत्तर अवश्य देना होगा...