छंद 11 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(ऋतुराज के स्वागतार्थ वन के सुसज्जित करने का वर्णन)
बायु बहारि-बहारि रहे छिति, बीथीं सुगंधनि जातीं सिँचाई।
त्यौं मधुमाँते-मलिंद सबै, जय के करषान रहे कछु गाई॥
मंगल-पाठ पढ़ैं ‘द्विजदेव’ सबै बिधि सौं सुखमा उपजाई।
साजि रहे सब साज घने, बन मैं ऋतुराज की जानि अवाई॥
भावार्थ: राजाओं के आगमन के समय जैसे उनके सत्कारार्थ सड़कें बुहारी और छिड़काई जाती हैं इत्यादि, उसी प्रकार महाराज ‘ऋतुराज’ के आगमन में कवि ने देखा कि वसंत-वायु के झकोरों से वन की पगडंडियाँ स्वच्छ की जाती हैं एवं पुष्पों के सुगंधित मकरंद से सिंचित की जाती हैं; मधु-पान से उन्मत्त भ्रमर-समूह ‘विजय-करषा’ बोलते बढ़ते जाते हैं, पक्षि-समूह और वन-देवतागण अपनी चहचहाहट के मिष मंगलपाठ कर रहे हैं, इत्यादि और भी सामग्री यथास्थित वन में प्रस्तुत हो रही हैं।