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छंद 13 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी

(वन-शोभा वर्णन)

जानि-जानि आपने ही गेह कौ अराम, हरि-इंदिरा के आठौं जाम मन अटके रहैं।
‘द्विजदेव’ बन-दुति दूनीऐ निहारि कछु, माँख सौं मनोज मन-माँहिं मटके रहैं॥
मानसर ऐसी बनी बावरी बिलोकि तामैं, सुरपति हू के हिए अति खटके रहैं।
नंदन के धोखैं ह्वै अनंदित, इहाँई देव-बृंदन के बृंद नित भूले-भटके रहैं॥

भावार्थ: अपेन स्थान (वैकुंठ) का उद्यान अनुमान कर श्री विष्णु तथा लक्ष्मी के मन आठों प्रहर इसी वन में लगे रहते हैं। वन की दूनी द्युति देख कामदेव भी आमषर्् से स्पृहायुक्त रहते हैं कि मेरी वाटिका ऐसी नहीं; मानसर के तुल्य सुशोभित बावली देख देवराज के हृदय में भी अत्यंत खटका रहता है कि यदि मानसर इत्यादि उत्तम स्थानों के तुल्य और भी सृष्टि की रचना हुई, तो एक दिन द्वितीय सुरलोक की भी रचना कदाचित् हो और पश्चात् द्वितीय सुरपति की भी आवश्यकता पड़े तथा ‘नंदनवन’ के धोखे से, आनंद मन होकर देव-समूह प्रतिक्षण इस वन में भटकते फिरते हैं।