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छंद 14 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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(उक्त दोहा पूर्व कथन का संबंधकारी है)
या बिधि की सोभा निरखि, तन-मन गयौ भुलाइ।
बन मैं यह लीला-ललित, ता छिन प्रगटी आइ॥
भावार्थ: इसी तरह की अनेक शोभाएँ देखते-देखते मैं अर्थात् कवि, अत्यंत अचंभित हुआ! इतने ही में वन और भी यह ललित लीला प्रकट हुई, यानी महाराज ऋतुराज की ‘सवारी’ शृंखलाबद्ध आती दीख पड़ी।