एक नफीरी, एक नगाड़ा / योगेन्द्र दत्त शर्मा
एक नफीरी, एक नगाड़ा
खूब जमाते रोज अखाड़ा!
पीं-पीं, पीं-पीं, पीं-पीं, पीं-पीं
तड़-धड़, तड़-धड़, तड़-धड़, तड़-धड़,
जमकर खूब लड़ाई छिड़ती
वह झगड़ालू, वह था अक्खड़।
नोंक-झोंक ही करते रहते,
नहीं देखते गरमी, जाड़ा!
नोंक-झोंक बढ़ गई एक दिन,
घमासान की जंग छिड़ गई,
बिफर गया बेतरह नगाड़ा,
और नफीरी खूब भिड़ गई।
हारमोनियम और पियानो,
दोनों ने फिर उन्हें लताड़ा!
इधर नफीरी ने बुला लिए
अपने सारे परिवारी जन,
शहनाई, बाँसुरी, पीपनी,
भोंपू, तुरही, माऊथ आर्गन।
खूब चिल्ल-पों रहे मचाते,
सबने अपना झंडा गाड़ा!
उधर नगाड़े के हिमायती
तबला, ढोल, मृदंग, दमामा,
मादल, ढपली, चंग सभी ने
मिलकर किया खूब हंगामा।
इन साजों ने, उन बाजों को
यहाँ उखाड़ा, वहाँ पछाड़!
बीच-बचाव कराने आए
अकार्डियन, संतूर, वायलिन,
समझौतों का दौर चला फिर
मान-मनौअल चला रात-दिन।
सीधे-सीधे बात बन गई,
फिर न चले वे तिरछा-आड़ा!
सारंगी बोली सितार से-
‘चलो जुगलबंदी करवाएँ!’
पर गिटार बोला सरोद से-
‘हम सब मिलकर कोरस गाएँ!’
हिल-मिलकर हर तान, ताल पर
वाद्य चले करने गुंताड़ा!
खनन-खनन-खन बजे मंजीरे,
छनन-छनन चिमटा चिंघाड़ा,
खटर-खटर खड़ताल बज उठी,
आसमान गूँजों से फाड़ा।
बजी नफीरी! बजा नगाड़ा!!