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छंद 20 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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भुजंगप्रयात

कहूँ कोक हूँ कोक की कारिका कौं। पढ़ावैं भली-भाँति सौं सारिका कौं॥
सुकाली कहूँ गान के भेद राँचैं। लता-लोलिनी लोल ह्वै नाँच नाँचैं॥

भावार्थ: कहीं चक्रवाक अपनी मधुर ध्वनि के मिष आचार्यों की भाँति कामशास्त्र की कारिका सारिकाओं को पढ़ाते हैं; कहं शुकों के समूह गान के अनेक भेदों का आलाप करते हैं और कहीं लताएँ चंचल स्त्रियों सी चंचलता से नाचती हैं।