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छंद 35 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(बुद्धिस्थिता भगवती के वचन-व्याज से श्री राधिका की स्तुति)

ऐसैं बिचारत हीं मति मेरी, प्रबोधि कहे अखरा मन-भाए।
ह्वै है कहा ‘द्विजदेव’ जू लाहु, इतौ उर-अंतर सोच-बढ़ाए॥
राधिका जू के बिहार के काज, सबै बिधि सौं सुखमा उपजाए।
वे नित ही के सँघाती बसंत, अपूरब बेस बनाइ कैं आए॥

भावार्थ: इसी विचार में था कि बुद्धिस्थिता देवी ने प्रबोधित करके मन-भावते (मन-भावने) शब्दों में कहा कि हे द्विजदेव कवि! इतना सोच-विचार करने से क्या लाभ है। क्या तुम नहीं जानते कि ‘श्री वृंदावनविहारिणी’ सुंदरी मुकुटमणि हरि-प्रिया ‘राधा-रानी’ के विहार निमित्त यह संपूर्ण शोभा बनाई गई है और भगवान् राधारमण के सदैव संग रहनेवाले अनुचर वसंतराज ने स्वामि विहारार्थ अबकी बार अपूर्व वेष धारण किया है।