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छंद 62 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दोहा
(कविकृत सज्जन प्रशंसा-वर्णन)

लखि-लखि कुमति कुदूषनहिँ, दैहैं सुमति बनाइ।
रहै भलाई भलेन मैं, केबल अंग-सुभाइ॥

भावार्थ: और यह भी समझो कि दूषण को देख ‘पंडित लोग’ लेखक की कुमति की निंदा न कर लेख का भ्रम मान सुधार देते हैं यह उनका सदैव अंग-स्वभाव है।