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छंद 74 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(परकीया कलहांतरिता नायिका-वर्णन)

बहि हारे सीतल सुगंधित समीर धीर, कहि हारे कोकिल सँदेसे पंचबान के।
साधन अगाधन बिसानी ना कछूक जौपैं, कौंन गनैं भेद पग-सीस-दान-मान के॥
‘द्विजदेव’ की सौं कछु मित्र के बिछोह-काल, देखि सकुचाँने दृग-अंबुज अयान के।
भाजौई भभरि सो तौ मान-मधुकर आली! आज ब्याज-कज्जल-कलित-अँसुवान के॥

भावार्थ: सखी कहती है कि श्रीराधाजी के मान-मनावनी के समय में त्रिविध-समीर कहि हारे और काम-दूती (कोकिल) काम के संदेशों को सुना-सुनाकर शिथिल हो गई, अनेक साधनायुक्ति और पैर पड़ना आदि मान-मोचन के अनेक युक्ति-भेद कुछ भी फलीभूत न हुए। किंतु सुर-भूसुर की सौगंध खाकर कहती हूँ कि तदुपरांत जब मित्र के वियोग का समय हुआ तो कमल से लोचन संकुचित हुए, सो ठीक ही है क्योंकि मित्र सूर्य को भी कहते हैं, अतः उनके बिछोह से कमल का संकुचित होना स्वभाव सिद्ध ही है और संपुट होते हुए कमल में से भ्रमरावली भागती हैं तो मानरूपी ‘मधुकर’ पश्चात्तापजनित कज्जल-कलित अश्रु-बूँद के मिस अंबुजरूपी आँखों के ब्याज से निकलकर भागा है अर्थात् मान-मधुकर ऐसा दृढ़ासन हो नेत्ररूपी कमलों में बैठा था कि वायु के झकोरों से न डिगा और न अपने प्रभु ‘काम’ के संदेशों से ही हटा, परंतु कमलों को सूर्यास्त के समय संपुटित होते जान उसे लाचार हो भागना ही पड़ा।