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छंद 75 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

मंजु-मंजु गुंजत मलिंदन की प्यारी-धुनि, सुनति सलौनी सुधि आवति न तन की।
‘द्विजदेव’ बनत बिलोकैं हीं बनक कछु, ललित-लवंग-लतिकान के सुमन की॥
सीरौ-धीर-सुरभि-समीर सरसात बन, लखि रुकि जाति गति का के ना चखन की।
ऊधौजू! न आवै लाज हिय मैं तिहारे आज, आऐंहूँ बसंत सीख देति उजरन की॥

भावार्थ: हे उद्धवजी! तुम्हें कुछ भी लज्जा नहीं आती कि जो वसंत (बसनेवाले दिन) के समय में जब मधुकर के मधुर गुंजार को सुन तन की सुधि-बुधि जाती रही (जाती रहती है) एवं लवंग की लोनी लताओं के ललित समूह की बनावट देखते ही बन पड़ती है अर्थात् चित्त आकर्षित होता है, वैसे ही शीतल, मंद, सुगंधित परागपूरित समीर का संचलन नेत्रों की गति को रोकता है, तब तुम हमसब गोपियों को उजड़ने की सीख दे रहे हो! यानी ऐसे समय संयोग की बातें कहनी चाहिए कि वियोग की! और योगशिक्षा में दर्शन, ध्यान और ज्ञान परमावश्यक है, किंतु इस समय इन तीनों का अभाव है, जैसाकि कवित्त के प्रथम तीन चरणों में लिखा गया है।