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छंद 83 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(प्रवत्स्यत्पतिका नायिका-वर्णन)

जानै तबै परिहास जबै जब स्याम बिदेस की बातन भाँखैं।
सो उन साँची करी ‘द्विजदेव’, पुरै दुखहाइन की अभिलाखैं॥
फूली घनीं बिष-बेलीं इतै, उत का बिधि ए अँखियाँ अब चाखैं।
देहरी-नाँखि चले वे लला, कहौ कौंनैं-प्रकार सौं देह री राखैं!

भावार्थ: हे सखी! जब-जब हमारे प्रिय प्रियतम विदेश चलने की बातें चलाते थे तब-तब सदा मैं परिहास ही जानती रही, किंतु अबकी बार उन्होंने सत्य ही करके मेरे सुख को असहन करनेवाली स्त्रियों की अभिलाषा पूर्ण की, विष-वेलि सी फूली कमलिनी को अब ये आँखें कैसे चाखेंगी अर्थात् देखेंगी, सो हे सखि! जब लला ने देहरी यानी चौखट लाँघकर विदेश यात्रा की तो इस शरीर को अब कैसे रखूँ।