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छंद 91 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(संयोग शृंगार-वर्णन)

चूनरी सुरंग सजि सोही अंग अंगानि, उमंगानि अनंग-अंगना लौं उँमहति हैं।
झुकि-झुकि झाँकति झरोखन तैं कारी घटा, चौहरे अटा पैं बिज्जु-छटा-सी जगति हैं॥
‘द्विजदेव’ सुनि-सुनि सबद पपीहरा के, पुनि-पुनि आँनद-पियूष मैं पगति हैं।
चावन चुभी-सी-मन-भावन के अंक तिन्है, सावन की बूँदें ए सुहावनी लगति हैं।

भावार्थ: जो चटकीली चूनरी से सुशोभित अंग पर काम-पत्नी (रति)-सी उमंग में भरी चौथे महल पर स्वतः बिजली-सी चमकती झुक-झुककर झरोखे से कारी घटा को झाँकती और पपीहा का प्यारा बोल सुनकर आनंद में मग्न हो प्यारे की गोद में बैठ जाती हैं, उन्हें सावन की बूँदों की फुहार बहार दिखाती हैं अर्थात् जिनका पति परदेश में है उन्हें यह सब नहीं भाता, जैसे हमें।