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छंद 106 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(दूतीकार्यांतर्गत विरह-निवेदन-वर्णन)

उँमड़ि घुँमड़ि घन छंडत अखंड धार, अति ही प्रचंड पौंन झूँकन बहतु है।
‘द्विजदेव’ संपा कौ कुलाहल चहूँघाँ नभ, सैल तैं जलाहल कौ जोग उँमहतु है।
बुधि-बल थाकौ सोई प्रलै-निसा कौ मेघ, जानि करि सूनौं बैर आपनौं गहतु है।
ए हो गिरिधारी! राखौ सरन तिहारी अब, फेरि इहि बारी ब्रज बूड़न-चहतु है॥

भावार्थ: हे व्रजराज! वह प्रलय की रात्रि का ‘मेघ’ जो प्रथम निज बुद्धि और पराक्रम से थकित हो गया था, अब आपके बिना ‘व्रज’ को सूना पाकर अपना पुराना बैर चुकाना चाहता है, क्योंकि मेघ उमड़-घुमड़कर मूसलाधार वृष्टि करने और झंझा पवन प्रचंड रूप से झोंका देकर चलने तथा चंचला की ‘चमक’ और ‘कड़क’ आकाश के चारों ओर चकाचौंध करने लगी है। पर्वतों से निर्झर प्रवाह हो क्षिति जलमय हो रही है, अतएव हे गिरिधारी! मैं आपकी शरण हूँ और विनती करती हूँ कि यह ‘व्रज’ फिर डूबा ही जाता है, अतः शीघ्र आकर बचाइए।