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छंद 107 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(आगतपतिका नायिका-वर्णन)

बादि हीं चंदन चारु घसै, घनसार घनौं-पंक-बनावत।
बादि उसीर समीर चहै, दिन-रैनि पुरैनि के पात-बिछावत॥
आप हीं ताप मिटी ‘द्विजदेव’ सुदाघ-निदाघ की कौंन कहावत।
बावरी! तू नहिँ जानति आज, मयंक-लजावत मोहन आवत॥

भावार्थ: हे सखियो! क्यों तुम व्यर्थ मलयज चंदन को लेपन के अर्थ घिसती बिछाती हो, क्योंकि विरह-ताप तो बात-की-बात में (अब) जाना ही चाहता है तो ग्रीष्म के ताप की कौन कथा चलाई जावे, तुम क्या नहीं जानतीं कि चंद्रमा को लज्जित करते आज मनमोहन (इधर ही) पधारना चाहते हैं।