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छंद 111 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी

मद-भरे झूमै, नभ-भू मैं परसत आवैं, भारे कजरारे कारे अति उनए नए।
‘द्विजदेव’ की सौं बक-पाँतिन के ब्याज बहु दंतन सँवारे न्यारे-न्यारे छबि सौं छए॥
धीर धुनि बोलैं, डोलैं दिगति-दिगंतनि लौं, ओज-भरे अमित मनोज फरमाए ए।
पावस-पठाए आए धीर-तरु तोरिबे कौं, नीरद न हौंहिँ मन-मथन मतंग ए॥

भावार्थ: इस कवित्त में कवि ने कामदेव के गजेंद्र का और मेघ से ‘रूपक’ किया है कि ये मेघ नहीं हैं, पावस के भेजे हुए विरही जनों के धैर्यरूपी वृक्ष को तोड़नेवाले कामदेव के हाथी हैं, जोकि मद भरे घूमते और आकाश से भूमि को स्पर्श करते तथा काजल की भाँति काले-काले हैं। बक-पंक्ति जो दिखाई पड़ती है वह मानो उनके दंत शोभित हो रहे हैं, अतः गंभीर शब्द करते हुए कामदेव के युद्ध के ये हाथी बड़े गर्व के साथ चले आते हैं।