छंद 119 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(जड़ता स्थायीभाव-वर्णन सखी की उक्ति)
परम परब पाइ न्हाइ जमुना के नीर, पूरि कैं प्रबाह अंगराग के अगर तैं।
‘द्विजदेव’ की सौं द्विजराज-अंजली के काज, जौ लौं चँहै पानिप उठायौ कंज-कर तैं॥
तौ लौं बन-जाइ मनमोहन मिलापी कहूँ, फूँकि-सी चलाई फूँकि बाँसुरी अधर तैं।
स्वाँसा कढ़ी नासा तैं, न बासा तैं भुजाहूँ कढ़ीं, अंजली न अंजली तैं, आखरौ न गर तैं॥
भावार्थ: हे सखी! आज यह नायिका किसी पुनीत पर्व को पाकर यमुना स्नान करने को धँसी तो उसके अंग प्रक्षालन से अगरयुक्त अंगराग ने छूटकर यमुना-जलप्रवाह को सुवासित कर दिया। इससे कवि का आशय यह है कि नायिका साधारण स्त्री या गँवारिन नहीं रही, बल्कि उत्तम श्रेणी व ऐश्वर्यवान् घराने की और सयानी तथा बहुदर्शिनी थी। अतः स्नान के बाद चंद्रमा को अर्ध्य देने के निमित्त जैसे ही उसने कर-कमलरूपी अंजली में जल उठाया तैसे ही ‘वृदावनविहारी’ ने मिलने की इच्छा से वन में जादू फूँकने के सदृश ‘बाँसुरी’ (वंशी) बजाई; अतः उस नायिका की चतुराई, बहुदर्शितादिक गुण कुछ भी काम न दे सके और वह ऐसी स्तंभित (सक्ता) हो गइ्र कि न तो नासिका से श्वास निकल सकी और न वस्त्र से भुजाएँ बाहर आईं तथा न अंजली से अर्ध्य का जल गिर सका और न कंठ से मंत्राक्षर ही विनिर्गत हो सके।