छंद 137 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
किरीट सवैया
(विरह-निवेदन-वर्णन)
कोऊ मलैज-मलै अति आतुर, चातुर कोऊ घँसै घन गातन।
त्यौं ‘द्विजदेव’ कोऊ अकुलाइ, हलाइ रही है पुरैनि के पातन॥
आपने गेह की नेह-भरे से, कहा हरि बूझि रहे कुसलातन।
छाइ रही है इही चरचा, व्रज की बनितान की बातन-बातन॥
भावार्थ: विदेश में किसी अंतरंगिणी सखी को पा नायक ने प्रेम भरे शब्दों में घर का अर्थात् गृहिणी का कुशल-मंगल पूछा। उसके उत्तर में सखी कहती है कि हे हरि! सारी व्रज-वनिताओं की जिह्वाओं पर इन दिनों यही बात है कि आपके विरह से वह नायिका ऐसी संतप्त हो रही है कि कोई सखी तो आतुरता से ‘श्वेत चंदन’ का लेप करती है; कोई चतुर (क्रियाकुशल) सखी ‘कर्पूर’ का उपचार करती है। इसी प्रकार कोई घबड़ाकर पुरैनि (कमल) के पातों (पतों) से हवा करती है; क्योंकि पुरैनि की हवा बहुत पूछ रहे हैं, यदि यथार्थ में आपका स्नेह उसमें होता तो क्या आप विदेशवास करते।