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छंद 139 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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जलहरन घनाक्षरी
(संयोग-शृंगार-वर्णन)

राती भई भूमि सो तौ जाबक की छाप, चूनरी की दाप रंग ऐसौ बरसै असेष घन।
साखी पग-पातन गुलाल-गुंफ से हैं खिले, ए हैं जरतारी जिन्हैं जानत अबीर-कन॥
‘द्विजदेव’ ऐसी छबि देखि-देखि दौरौ कहा, फागुन के भोरैं ब्रज-मँडल के सारे जन।
सहज सखीन-संग राधाजू पधारीं आज, सावन मैं सूधे ही सुभायन असोक-बन॥

भावार्थ: हे व्रजवासियो! आज सखियों के समेत श्रीराधिकाजी सावन की हरियाली देखने के लिए जो अशोक-वन को पधारी हैं तो उसकी छवि देख तुम सब फाग के धोखे कहाँ दौड़े जाते हो? जिसे तुम भूमि पर गुलाल की ललाई समझते हो वह सखियों के पैरों में लगे टटके महावर का दाग है और आकाश से गिरते हुए जलबिंदु जो रंजित से मालूम होते हैं वह चटकीली चुनरियों का उनपर प्रतिबिंब पड़ना है? योंही जिसे कुमकुमे समझते हो वह युवतियों के चरणाघात से कुसुमित अशोक वृक्ष के लाल फूलों के गुच्छे गिरे हैं और जिसे तुम अभ्रक का चूर्ण (बुक्का) समझते हो वह परिचारिकाओं की जरतारी सारी से गिरे हुए जरतार, बादल व किरण हैं।