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छंद 158 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(खंडिता नायिका-वर्णन)

सब झूँठी कहैं ब्रज-लोग जु यापैं, मनोभव-भूप के भाले परे।
छत जे वे हुते उर-अंतर ते अपनी करतूति सौं आले परे॥
‘द्विजदेव’ जू बूझि परी यह आज, हिऐं जब आनि दुसाले परे।
अरबिंद सौं आनद मंद भयौई चहैं ब्रजचंद के पाले परे॥

भावार्थ: कोई पूर्वनुरागिणी नायिका अंतरंगिणी सखी से अपनी अनुरागमाला गाती है कि हे सखी! ये लोग वृथा दोषारोपण करते हैं कि संप्रति मेरे ऊपर कुसुमायुध (काम) के भाले अर्थात् बरछे पड़े हैं। यथार्थ तो यह है कि अपनी ही भूल है कि प्रथम तो चित्रादिक दर्शनों से हृदय में क्षत हुआ, पश्चात् प्रत्यक्ष दर्शन से वह और भी नवीन होकर हरा हो गया, सो आज इस ऐंचा-खींची से ज्ञात हुआ कि एक नहीं किंतु दोहरे क्षत हैं। अतएव यह उचित ही हुआ, क्योंकि मेरा ‘वारिज-वदन’ व्रज-चंद के पाले (वशीभूत) पड़ा तो ‘चंद्रोदय’ मे ‘कमलिनी’ का संपुटित होना सिद्ध ही है, ऐसा ही तू उनसे कह दे।