छंद 160 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)
बिछुरे जदु-नंदन जा दिन तैं, सखि! ऐसौ कछु उदबेग परौ।
छिन एकौ न जाती सही तलफैं, दुख एक के ठाँव अनेग परौ॥
कसकैं ‘द्विजदेव’ जू ऐसी बढ़ीं, उर-अंतर मानौं परेग परौ।
मन तौ मनमोहन के सँग गौ, तन लाज-मनोज के नेग परौ॥
भावार्थ: कोई ‘प्रोषितपकिा नायिका’ (अपनी) अंतरंगिणी सखी से अपने विरह की अवस्था का वर्णन करती है कि जिस समय से भगवान वृंदावनविहारी से बिछोह हुआ, उस समय से चित्त में कुछ उद्वेग रहता है। क्षणमात्र भी दुःख की तरंगों का सहन नहीं होता। पद-पद पर नवीन दुःख दीखते हैं और हृदय में ऐसी पीड़ा रह-रहकर उठती है कि मानो किसीने लोहे की छोटी-छोटी ‘कीलें’ बिखेर दी हों। हे सखी! कहाँ तक कहें, मन तो मनमोहन प्यारे के संग अनत (दूसरी जगह) सिधारा और शरीर दुखदायी लज्जा तथा कसाई काम के पंजे में पड़ा है।