भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 165 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:34, 3 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुर्मिल सवैया
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

सबके हिय बादि हीं आइ अहो! सम जोग सबै भुव-भोग परौ।
सब बादि उसाँसन बैठीं भरैं, सबके उर बादि हीं सोग परौ॥
‘द्विजदेव’ जू यामैं बिषाद कहा, जुपैं गोपिन-सीस बियोग परौ।
अब ऊधौ! जू कूबरी कौ वरिबौ, उन ‘लाल त्रिभंगी’ पै जोग परौ॥

भावार्थ: कोई गोपी अन्य सब अपनी सखी गोपियों को भगवान् के वियोग से दुःखित देख अनखा के उद्धव से कहती है कि सब व्रजबालाओं ने व्यर्थ ही भोग छोड़ जोग धारण किया है तथा व्यर्थ ही ऊब के निश्वास भरती व शोक करती हैं। यह कोई विशेष सोचनीय विषय नहीं है कि ‘नंद-नंदन’ ने व्रज-वनिताओं को छोड़ ‘कूबरी’ से ‘स्नेह’ किया, क्योंकि यथार्थ संबंध तो यही है कि जैसी वह टेढ़ी ‘कूबरी’ है, वैसे ही वे भी त्रिभंगी ‘श्याम’ हैं। (इसमें निरुक्ति अलंकार है।)