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छंद 174 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)

बन गाजन दै री चकोरन-मोरन, आज इन्हैं गजिवौई परौ।
छिति छाजन दै री लवंग-लतान कौं, जौ पैं तिन्हैं छजिवौई परौ॥
सब आज लौं गाहक जाके हुते, वह स्वाँग हमैं सजिवौई परौ।
प्रिय-प्रान के नेह लगालगी मैं, अब प्रान हमैं तजिवौई परौ॥

भावार्थ: कोई विरहिणी नायिका प्रियतम के वियोग में मरणकाल को सन्निकट आया जान परिचारिकाओं से कहती है कि मुझको प्राणप्यारे के स्नेह में अब निस्संदेह प्राण त्याग शीघ्र ही करना पड़ेगा, क्योंकि मिलन की आशा न रही, अतएव चकोर, मोर आदि पक्षीगण तथा लबंग-लतिकादिक पुष्प-लता इत्यादि जो सब उद्दीपनकारक हैं, मेरे शरीर को नष्ट करना चाहते थे और तुम सबके उद्योग से वह कृतकार्य न हो सके अर्थात् पक्षीगण को तुम सब उड़ा देती थीं तथा लता-पुष्पादिक की शोभा को छिन्न-भिन्न कर देती थीं; अब कोई आवश्यकता उन सबको वृथा दुःख देने की न रही, क्योंकि अब मैं स्वयं उनके इष्ट-साधन में तत्पर हूँ तो उनके मुख-सौंदर्य में क्यों विघ्न करती हो।